मेरे ज़ेहन से गुज़र कर हाथों के रस्ते सफ़ेद आकाश में उड़ान भरतें हैं नीले कबूतर इन कबूतरों को रब की उम्र लग जाये
Thursday, June 19, 2008
वो मेरे साथ थी
जाने कब से खोज रहा हूं
अभी तक नहीं मिला
मुझे लगा मेरी मां है मेरी अपनी
नहीं
वो तो चली गई
पता नहीं कहां
हवा में है या
धरती में
मुझे लगा शायद मेरे पिता हैं
मेरे अपने
नहीं, वो भी तो मुझे
मां की ही तरह छोड़ गए थे
मुझे लगा शायद मेरे भाई-बहन
मेरे दोस्त, मेरे सगे-संबंधी
ये सब मेरे अपने हैं
लेकिन नहीं
वो भी तो मेरे मां-बाप की तरह ही
मुझे छोड़कर चले जाएंगे
तो कौन है मेरा अपना
आख़िर मैंने उसे ढूंढ़ ही लिया
वो हर समय मेरे साथ रहती है
दुख में, सुख में
जब मैं उदास होता हूं
तो मेरे साथ उदास होती है
जब मैं ख़ुश होता हूं
तो मेरे साथ ठहाके लगाती है
हर पल
हर लम्हा
वो मेरे साथ है
वो हर पल अहसास करवाती है
अपने साथ होने का
कहीं ज़िंदगी के आख़िरी राह पर
वो मेरा साथ न छोड़ दे
नहीं, उसने मेरा साथ नहीं छोड़ा
वो अब भी मेरे साथ है
मेरे आख़िरी सफ़र पर
जब मेरा सफ़र ख़त्म हुआ
वो मेरे साथ थी
Monday, June 16, 2008
नुसरत फ़तेह अली ख़ान जी की लाइव performance
http://www.youtube.com/watch?v=र२ल२फ्क़३र्स्म्
माए नीं माए मेरे गीतां दे नैना विच...
http://www.youtube.com/watch?v=GUjdGzzgwYs&feature=related
मैंने बचपन देखा
अपनी गली में
जो एक हाथ में चोकलेट
और दूसरे में गेंद लिए
दौड़ रहा है इधर-उधर
नंगे पांव
उसे रोकना चाहती है उसकी मां
दौड़ने से
ताकि उसे चोट न आए
मन को सुकून मिला
मां की ममता और बचपन देखकर
अगली सुबह मैंने फिर देखा बचपन
कूड़े के ढेर पर
जिसके एक हाथ में है छड़ी
और दूसरे में बोरी
जो नंगे पांव
कचरे से बींद रही है
अपनी रोटी का सामान
जिसके साथ है उसकी मां
जो उसे बताती है
क्या उठाओ
मन उदास हुआ
मां की ममता और बचपन देखकर
हीर
वो भी बिना किसी म्यूज़िक के
मैंने आजतक इससे ऊपर किसी की हीर नहीं सुनी।
सुनकर देखिए...
http://www.youtube.com/watch?v=Rw2Iz-k8Uf0
Saturday, June 14, 2008
शिव की अपनी आवाज़ में कुछ कविताएं
१ सिखर दुपहर सिर ते...
२ की पुछदे ओ हाल फ़क़ीरां दा...
३ इक कुड़ी जिदा नां मोहब्बत...
http://www.apnaorg.com/audio/shiv/
Friday, June 13, 2008
कविता
सूर्य अस्त होता है तो कविता बनती है
फूल खिलते हैं और फिर मुरझा जाते हैं
चांद निकलता है और फिर अमावस आती है
कभी बारिश की बूंदे धरती पर पड़ती हैं
तो कभी अकाल पड़ता है
कोई महलों में रहता है
तो कोई भूख से बिलखता है
कोई परियों सी घूमती है
कोई तन ढकने के लिए कपड़े को तरसती है
दुनिया की हर शय में कविता है
हर शय ख़ाक हो जाती है
नहीं मरती तो सिर्फ़ कविता
Tuesday, June 10, 2008
ज़ौक़ की शायरी- ज़हर भरी आंख
शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते हैं, जिनके अनेक शागिर्दों ने अदबी दुनिया में अच्छा मुक़ाम हासिल किया है। शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का रंग सांवला था। चेहरे पर हद से ज़्यादा चेचक के दाग़ थे। लेकिन इसके बावजूद वह बहुत अच्छे लगते थे। अकबर शाह बादशाह ने शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ को ख़ाक़ान-ए-हिन्द की उपाधि से नवाज़ा तब उनकी उम्र महज़ 19 वर्ष थी। उनकी आवाज़ ऊंची और ख़नकदार थी। मुशायरों में वे शेर पढ़कर सामईन का दिल लूट लेते थे। बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र और नवाब इलाही बख़्श ने ज़ौक़ साहब की शागिर्दी की। शेख़-ज़ौक़ एक साधारण सिपाही के पुत्र थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर अनेक विघ्न-बाधाओं को रौंदते हुए, शाही दरबार में प्रवेश पाया और बहादुर शाह बादशाह के काव्य-गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित हुए। ज़ौक़ साहब को ख़ाक़ान-ए-हिन्द जैसी महान पदवी के बाद मिलकुल शोअरा की उपाधि से भी नवाज़ा गया।
मैं आपको पढ़ाने जा रहा हूं ज़ौक़ साहब की शायरी। जिन शब्दों को इटैलिक किया है, उनका अर्थ नीचे क्रमांक दिया है।
यह अक़ामत हमें पैग़ामे-सफ़र देती है
ज़िंदगी मौत के आने की ख़बर देती है
ज़ाल दुनिया है अजब तरह की अल्लामा-ए-दहर
मर्दे-दींदार को भी दहर यह कर देती है
तैरा-बख़्ती मेरी करती है परेशां मुझको
तोमहत उस ज़ुल्फ़े-सियहफ़ाम पे धर देती है
रात भारी थी सरे-शमा पे सो हो, गुज़री
क्या तबाशीर सफ़ेदी-ए-सहर देती है
नाज़ो-अन्दाज़ तो कर चुके सब मश्क़े-सितम
मुहब्बत मेरी इस्लाह देती है
देरी शरबत है किसे ज़हर भरी आंख तेरी
ऐन एहसान है मुझसे ज़हर ज़हर भी गर देती है
क्या करें हसरते-दीदार कि दम लेने की
दिल को फ़ुरक़त नहीं वह तेग़े-नज़र देती है
शमा घबरा न तपे-ग़म से कि इक दम में अभी
आए काफ़ूर सफ़ेदी ये सहर देती है
फ़ायदा दे तेरे बीमार को क्या ख़ाक दवा
अब तो अक्सीर भी दीजे तो ज़रर देती है
ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है
1 ठहराव 2 यात्रा का संदेश 3 बुढ़िया 4 संसार की बुद्धिमता 5 धार्मिक पुरुष 6 दुष्ट, नास्तिक 7 दुर्भाग्य 8 कष्ट देना 9 दोष, आरोप 10 काले केश 11 बंसलोचन 12 प्रातःकाल की उज्ज्वलता 13 अत्याचार का अभ्यास 14 सुधार 15 विशेष 16 दृष्टि की तलवार 17 दुख की गरमी 18 दूर होना, कपूर 19 अचूक दवा 20 हानि 21 अशिष्टता 22 प्रातःकाल की हवा
Monday, June 9, 2008
गांव
गांव की फिरनी
पत्थरों वाली सड़क धड़कती है
सड़क पर पैर रखते ही मां ने पैर चूमा है
अभी चार क़दम नहीं चला
खेत धड़कने लगे हैं
खेतों में खड़ा डरना धड़का है
ज़हन में कहीं
रेल की कूक से पहले
फाटक धड़क रहा है
मेरी आंखों के सामने
फाटक के पार, गांव है
मां है, बरगद है, दुआएं हैं और शरीका भी
रेल छूकती निकल गई है
शायद उसकी कूक के कारण, फाटक पार की धड़कन
मैं सुन नहीं सका