Wednesday, September 24, 2008

पीड़

कोई न जाने इश्क़ की ज़ात को
न कोई पहचाने तेज़ाब की बरसात को
खिला फूल तो है सदा ही महकता
कोई न जाने सूखे पत्तों के जज़बात को
कोई न जाने दिल की पीड़ को
कोई न देखे दिल होए लीरो-लीर को
इश्क़ के सागर में लगाते हैं सारे ही डुबकी
न कोई पहचाने शिकरे यार को
कोई न जाने ग़ज़ल की बहर को
न कोई पहचाने ग़ज़ल के ज़हर को
ये हल्के-हल्के है दिल में उतरता
जो रोक देता है धड़कनों की लहर को
शिकरा- दिल का मांस खाने वाला पक्षी

Wednesday, September 17, 2008

फ़ासला




दो कू पैर पुट्टे ने ते मैं गया हां रुक
नाप रिहा हां धरती ते अंबर विचला फ़ासला
दो कू ही बुरकियां ने अजे खादीयां
नाप रिहा हां खेतां ते थाली विचला फ़ासला
भैण छोटी नूं खेडदियां लिया है चुक
नाप रिहा हां मैं खेड ते डोली विचला फ़ासला
मां ते दादी नूं मैं गल्लां करदे वेख के
नापदा हां मैं नूंह ते मां दे विचला फ़ासला
बाप दे मोडियां तों बोरी मैं लई है चुक्क
नाप रिहा हां मैं बोरी ते अरथी विचला फ़ासला

अनुवाद

दो क़दम चला हूं अभी और गया हूं रुक

नाप रहा हूं मैं धरती और अंबर के बीच का फ़ासला

दो ही निवाले अभी है खाएं

नाप रहा हूं खेत और थाली के बीच का फ़ासला

बहन छोटी को खेलते लिया है उठा

नाप रहा हूं खेल और डोली के बीच का फ़ासला

मां और दादी को बातें करते देखकर

नापता हूं मैं बहु और मां के बीच का फ़ासला

बाप के कंधों से बोरी मैंने ली है उठा

नाप रहा हूं बोरी और अर्थी के बीच का फ़ासला