Friday, July 9, 2010

मैं मिट्टी दी मिट्टी

मिट्टी
पाणी
घड़ा
तेरे बाजों मेरा वजूद नाहीं
तूं काफ़ूर हो गयैं।
मैं तिड़क गई
लोकां दी खेड
फिर मिट्टी दी मिट्टी

4 comments:

Shabad shabad said...

विजय जी,
बहुत सुंदर कविता लिखी है.....

नहीं वजूद मेरा
मिट्टी ‌त‌ बिन पाणी.....
जानता नहीं कुछ
तुम मेरे हाणी....

जब हब इस मिट्टी और पानी की अहमियत समझ जाएँगे यह धरती सर्व बन जाएगी ।

हरदीप

मोहन वशिष्‍ठ said...

kahar dhha diya vijay bahut sunder bas yaar ek kaam aur karo ki antral ko kam karo aur jaldi jaldi likho

ਸਫ਼ਰ ਸਾਂਝ said...

ਵੇ ਘੜਿਆ
ਬਿਨਾਂ...
ਮਿੱਟੀ -ਪਾਣੀ
ਤੇਰਾ ਕੋਈ..
ਵਜੂਦ ਨਹੀਂ ਅੜਿਆ....
ਵਿਜੇ ਜੀ....
ਕੁਝ ਕਲਮ ਘਸਾਓ....
ਹਾਇਕੂ ਬਲਾਗ 'ਤੇ ਮੁੜ ਫੇਰਾ ਪਾਓ....

Dilseshayri said...

Lajabav