Wednesday, November 4, 2009

क्या बताऊं

क्या बताऊं इन आंखों ने क्या मंज़र देखा
धरती के सीने में उतरता खंजर देखा
जिस धऱती पे थे उगते फूल शफ़ा के
उस धरती पे लहू का समंदर देखा

क्या पूछते हो, क्यूं आंखें नम हैं
उस समंदर को भीतर उफनते देखा
दिल से हल्की सी इक आह निकली
आह को बवंडर में बदलते देखा

कल था देखा बच्चे भागें पतंग के पीछे
आज उन हाथों में लहू सना खंजर देखा
क्या बताऊं इन आंखों ने क्या मंज़र देखा
धरती के सीने में उतरता खंजर देखा

5 comments:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन!! हो कहाँ भाई आजकल?

Asha Joglekar said...

आह, आज के आतंक की क्या सही तस्वीर खींची है ।

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह विजय बहुत ही दिनों बाद पढने को मिली एक बेहतरीन रचना यार लिखते रहा करो इतने भी क्‍या बिजी हो गए यार

gazalkbahane said...

अच्छा लिखा

Alpana Verma said...

'क्या बताऊं इन आंखों ने क्या मंज़र देखा
धरती के सीने में उतरता खंजर देखा'
waah! waah! waah!

bahut hi bahut behtareen!