क्या बताऊं इन आंखों ने क्या मंज़र देखा
धरती के सीने में उतरता खंजर देखा
जिस धऱती पे थे उगते फूल शफ़ा के
उस धरती पे लहू का समंदर देखा
क्या पूछते हो, क्यूं आंखें नम हैं
उस समंदर को भीतर उफनते देखा
दिल से हल्की सी इक आह निकली
आह को बवंडर में बदलते देखा
कल था देखा बच्चे भागें पतंग के पीछे
आज उन हाथों में लहू सना खंजर देखा
क्या बताऊं इन आंखों ने क्या मंज़र देखा
धरती के सीने में उतरता खंजर देखा
5 comments:
बेहतरीन!! हो कहाँ भाई आजकल?
आह, आज के आतंक की क्या सही तस्वीर खींची है ।
वाह विजय बहुत ही दिनों बाद पढने को मिली एक बेहतरीन रचना यार लिखते रहा करो इतने भी क्या बिजी हो गए यार
अच्छा लिखा
'क्या बताऊं इन आंखों ने क्या मंज़र देखा
धरती के सीने में उतरता खंजर देखा'
waah! waah! waah!
bahut hi bahut behtareen!
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