Thursday, December 2, 2010

बाज़ार

क्यूं लिखूं कविता?
ताकि
उधेड़ दिया जाए
और कतरा-कतरा
बिखेर दिया जाए
शुष्क हवाओं में
और सूरज की
तपिश भस्म कर दे
उन विचारों को
उन संवेदनाओं को
जो मेरे जिस्म में
सिंचे हैं
क्यूं लिखूं कविता?
जबकि पता है
बिकाऊ होते जा रहे
अहसासों के बाज़ार में
बिकेगी लिफ़ाफ़ा-दर-लिफ़ाफ़ा
या
पड़ी होगी किसी कबाड़ी की दुकान पर
फिर से री-साइकिल होकर
बिकने के लिए
ताकि लिखी जाए
फिर नई कविता