Wednesday, May 28, 2008

मेरा ढल चलिया परछावां

सिखर दुपहर सिर ते
मेरा ढल चलिया परछावां
कब्रां उडीकदीयां
मैनूं जिओ पुत्तरां नूं मावां
ज़िंदगी दा थल तपदा
कले रुख दी होंद विच मेरी
दुखां वाली गहर चढ़ी
वगे गमां वाली तेज़ हनेरी
मैं वी किहा रुख चंदरा
जिनूं खा गईयां ओहदी छावां
सिखर दुपहर सिर ते
मेरा ढल चलिया परछावां
लखां मेरे गीत सुण लए
पर दुख नां किसे ने वी जाणिया
कईयां मेरा सीस चुमिया
पर मुख ना किसे ने पछाणिया
अज ओसे मुखड़े तों
पैया आपणा मैं आप लुकावां
सिखर दुपहर सिर ते
मेरा ढल चलिया परछावां

Tuesday, May 20, 2008

याद

मैं चाहता हूं कि उसे भूल जाऊं
उसकी याद को कैसे भुलाऊं
मुझे अपने ही लगते हैं ग़ैर
जिन्होंने निकाला है मुझसे बैर
एक दिल करता है कि मर जाऊं
पर उससे दग़ा कैसे कमाऊं
मैं चाहता हूं कि उसे भूल जाऊं
उसकी याद को कैसे भुलाऊं

आगोश

जब एक बच्चा रोता है
तो मां उसे अपनी आगोश में लेती है
जब पत्नी नाराज़ होती है तो
पति उसे अपनी आगोश में लेता है
चिड़िया शाम को आती है
तो घोंसला उसे अपनी आगोश में लेता है
बारिश बरसती है
तो सिप्पी बूंदों को आगोश में लेती है
बहती हुई नदिया को
समुद्र अपनी आगोश में लेता है
और समुद्र को
अपनी आगोश में लेती है धरती
जब सांझ ढलती है
तो रात उसे अपनी आगोश में लेती है
और रात को अपनी आगोश में लेता है दिन
कितनी प्यारी है ये आगोश

Sunday, May 18, 2008

आवाज़

इक ऐसी आवाज़
जो सदियों से मुझे सुनाई देती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे मेरी मां की आवाज़ लगती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे मेरी बहन की आवाज़ लगती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे मेरी परेमिका की आवाज़ लगती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे खेल रही बच्ची की आवाज़ लगती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे भीख मांग रही बच्ची की आवाज़ लगती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे ससुराल जाती लड़की की आवाज़ लगती है
इक ऐसी आवाज़
जो कभी मुझे चीखती-कराहती लड़की की आवाज़ लगती है
कभी इन आवाज़ों से मैं पीछा छुड़ाना चाहता हूं
और कभी इनकी तरफ खिंचा चला जाता हूं
पता नहीं क्यों सुनाई देती हैं मुझे ये आवाज़ें?

पिता जी के लिए

सुबह-सुबह सूर्य की किरणें हमारी छत पर पड़ती
और मेरे पिताजी चिडियों को दाना डालने जाते
चिडियों का झुंड आता और मेरे पिताजी की हथेली से दाने चुगता
अब ना तो सूर्य की किरणें ही हमारी छत पर पडतीं हैं
और ना ही चिडिया दाना चुगने आती हैं
सूर्य की किरणें मधम पड गई
या चिडियों को ही किसी ने मार दिया
-विजय मौदगिल

संगीत-1

मैंने सुना है संगीत
एक बच्‍चे से
जिसके हाथ में है इकतारा
वो गा रहा है मां हुंदी ऐ मां ओ दुनिया वालियों
मैंने सुना है संगीत उसके फटे हुए कपडों से
जिसमें से गा रहा है उसका बदन
मैंने सुना है संगीत
रेल के ठंडे फर्श पर रखे उसके नंगे पांव से
मैंने सुना है संगीत
ठंड से नीले पड गए उसके होंटों से
मैंने सुना है संगीत उसकी आंखों से
जो लोगों के हाथ में तलाश रहीं हैं एक रूपया
यह संगीत मुझे उदास कर देता है
-विजय मौदगिल

Saturday, May 17, 2008

दरवाजा

दरवाजा
जिसके पीछे गूंजती हैं बच्चे की किलकारियां
दरवाजा
जिसके पीछे से आती है किसी बुजुरग के खांसने की आवाज़
दरवाजा
जिसके पीछे से सुनाई देती हैं किसी लड़की की दरदनाक चीख़ें
दरवाजा
जसके पीछे जपती है मां हरि का नाम
क्या ये महज दरवाजा है१

संगीत

कहां है संगीत
जो हम िचड़ियों की चहचहाहट में सुनते थे
कहां है संगीत
जो हम झरते हुए झरने, नदियों और नहरों के पानी में सुनते थे
कहां है संगीत
जो हवा चलने पर पत्तों की खड़खड़ाहट से पैदा होता था
शायद हमने उस संगीत को दबा दिया
मैं सुनना चाहता हूं वो संगीत
कोई सुनाओ मुझे वो संगीत

शून्य

शून्य
असंख्य तक की शुरुआत
शून्य
जिंदगी की शुरुआत
शून्य
बऱहम्मांड की शुरुआत
शून्य, शून्य नहीं
आगाज़ है।