Sunday, February 8, 2009

तलाश

ख़ुद नूं ही ख़ुद दी तलाश मार गई
मैंनू इह शराब बेहिसाब मार गई
पी के ख़ुद नूं टोल्ह रिहा हां
ना जाणे किस नाल बोल रिहा हां
लभदा हां ख़ुद नूं गिलासां विच मैं
कदी लभदा हां रंग-बिरंगे लिबासां विच मैं
लभदा हां लोकां दियां अक्खां विच मैं
कदी लभदा हां गलियां के कक्खां विच मैं
ख़ुद नूं ही ख़ुद दी तलाश मार गई
मैंनूं इह शराब बेहिसाब मार गई

6 comments:

राज भाटिय़ा said...

बोत ही सोनी रचना है जी तुहाडी, मेनू तेरा करार ले बेठां..... याद आ गई
धन्यवाद

परमजीत सिहँ बाली said...

बोत ही वदिया लिखिया है जी।वधाईयां।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

Bahut hi pyari rachna..Aap bahut achha likhte hain. Wasie main jyada punjabi nahin samjhta lekin aaki kavita poori samjh mein aayi. Aapko kavita se pahle mujhe sirf 'mitti da bawa' jo ki jagjit singh ki ek punjabi ghazal hai, achhi lagti thi.

Ab do ho gayi hain :) Likhte rahiye. Main padhne aata rehoonga.

डॉ .अनुराग said...

great man.....as usual...

मोहन वशिष्‍ठ said...

ख़ुद नूं ही ख़ुद दी तलाश मार गई
मैंनू इह शराब बेहिसाब मार गई


भाई विजय ये सब क्‍या है क्‍या लिख रहे हो मेरी तो कुछ समझ में आ नहीं रहा कि आप ऐसा लिख कैसे सकते हो इतनी अच्‍छी रचना वैसे मुझे यकीन नहीं हुआ हालांकि करूंगा क्‍योंकि पहले भी तुम पंजाबी दी कई कविताएं लिख चुके हो तो यकीन करूंगा मैं आज तुम्‍हें एक नाम देता हूं बहुत बडा नाम है इसे संभालना आज से तुम पंजाबी के शिव कुमार बटालवी हो दूसरे अगर मैं गलत नहीं हूं तो कुछ गलती के लिए माफी चाहूंगा जो दिल में आया लिख दिया तुमहारी लेखनी को मेरा सलाम कायल हूं मैं तुम्‍हारी लेखनी का

योगेन्द्र मौदगिल said...

कब बुला रहे हो विजय.... हो जायें दो-दो पैग...
खैर...
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति....
WAH>>>>>>>>