Monday, June 9, 2008

गांव

शहर से गांव गया हूं
गांव की फिरनी
पत्थरों वाली सड़क धड़कती है
सड़क पर पैर रखते ही मां ने पैर चूमा है
अभी चार क़दम नहीं चला
खेत धड़कने लगे हैं
खेतों में खड़ा डरना धड़का है
ज़हन में कहीं
रेल की कूक से पहले
फाटक धड़क रहा है
मेरी आंखों के सामने
फाटक के पार, गांव है
मां है, बरगद है, दुआएं हैं और शरीका भी
रेल छूकती निकल गई है
शायद उसकी कूक के कारण, फाटक पार की धड़कन
मैं सुन नहीं सका

3 comments:

Alpana Verma said...

अभी चार क़दम नहीं चला
खेत धड़कने लगे हैं

bahut hi sundar kalpana hai is kavita mein.

...ashant mahasagar!!!!!!!blog ka naam bhi kavitayee hai...

Keerti Vaidya said...

very nice......khoobsurat chitran

सुशील छौक्कर said...

सुन्दर अति अति..... सुन्दर।