शहर से गांव गया हूं
गांव की फिरनी
पत्थरों वाली सड़क धड़कती है
सड़क पर पैर रखते ही मां ने पैर चूमा है
अभी चार क़दम नहीं चला
खेत धड़कने लगे हैं
खेतों में खड़ा डरना धड़का है
ज़हन में कहीं
रेल की कूक से पहले
फाटक धड़क रहा है
मेरी आंखों के सामने
फाटक के पार, गांव है
मां है, बरगद है, दुआएं हैं और शरीका भी
रेल छूकती निकल गई है
शायद उसकी कूक के कारण, फाटक पार की धड़कन
मैं सुन नहीं सका
3 comments:
अभी चार क़दम नहीं चला
खेत धड़कने लगे हैं
bahut hi sundar kalpana hai is kavita mein.
...ashant mahasagar!!!!!!!blog ka naam bhi kavitayee hai...
very nice......khoobsurat chitran
सुन्दर अति अति..... सुन्दर।
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